
Gita Acharan
Podcast af Siva Prasad
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Bhagavad Gita is a conversation between Lord Krishna and Warrior Arjun. The Gita is Lord's guidance to humanity to be joyful and attain moksha (salvation) which is the ultimate freedom from all the polarities of the physical world. He shows many paths which can be adopted based on one's nature and conditioning. This podcast is an attempt to interpret the Gita using the context of present times. Siva Prasad is an Indian Administrative Service (IAS) officer. This podcast is the result of understanding the Gita by observing self and lives of people for more than 25 years, being in public life.
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635 episoderవ్యక్తీకరించబడిన అంటే భౌతిక ప్రపంచంలో, పరివర్తనం శాశ్వతము. అవ్యక్తమైన లేదా ఆత్మ ఎల్లప్పుడూ మార్పు లేకుండాఉంటుంది. ఈ రెండు రకాల వ్యవస్థల మధ్య సమన్వయం, సమతుల్యం సాధించటానికి ఓ పద్ధతి అవసరం. ఈ పధ్ధతి ఓ స్థిరమైన కేంద్రంను ఆధారం చేసుకుని చక్రం తిరగడానికి బాల్ బేరింగ్ వ్యవస్థ తీసుకొనివచ్చే సమన్వయము లాంటిది. ఈ పద్ధతికి మరో ఉదాహరణ ఏమిటంటే కారులో ఉండే గేరు బాక్స్. అది కారు, ఇంజనుల వేర్వేరు వేగాల మధ్య సమన్వయము తెచ్చి ప్రయాణాన్ని సాధ్యము చేస్తుంది. నిరంతరం మారేబాహ్య పరిస్థితులు మరియు నిశ్చలమైన ఆత్మ మధ్య ఇంద్రియాలు, మనస్సు, బుద్ధి సమన్వయము తీసుకువస్తాయి. ఇంద్రియ వస్తువుల కంటే ఇంద్రియాలు శ్రేష్ఠమైనవని, ఇంద్రియాల కంటే మనస్సు శ్రేష్ఠమైనది, మనస్సు కంటే బుద్ధి శ్రేష్ఠమైనది, బుద్ధి కంటే కూడా ఆత్మ శ్రేష్ఠమైనదని శ్రీకృష్ణుడు వీటి మధ్య ఒక ఆరోహణ క్రమాన్ని వివరిస్తారు (3.42). ఇంద్రియాల యొక్క భౌతిక భాగములు భౌతిక ప్రపంచంలోని మార్పులకు యాంత్రికంగా ప్రతిస్పందిస్తూ ఉంటాయి. మనస్సు అనేది జ్ఞాపకశక్తితోపాటు ఇంద్రియాల యొక్క నియంత్రక భాగముల కలయిక. మనలను సురక్షితంగా ఉంచడానికి ఇంద్రియాల యొక్క భౌతిక భాగం ద్వారా వచ్చే స్పందనలనుమన మనస్సు పరిశీలిస్తూ ఉంటుంది. ఇక్కడ మన మనస్సును ఒక వైపు ఇంద్రియ స్పందనలు రెండవ వైపు బుద్ధి నియంత్రిస్తూ ఉంటాయి. ఇంద్రియ స్పందనలు నియంత్రిస్తూ ఉంటే అది ఒకబాధాకరమైన ప్రతిచర్య జీవితం అవుతుంది. మన బుద్ధి మన మనస్సును నియంత్రిస్తూ ఉంటే అది అవగాహనతో కూడిన ఆనందమయ జీవితం అవుతుంది. అందుకే మనస్సును స్వయంలో స్థిరపరచడానికి బుద్ధిని ఉపయోగించే అభ్యాసాన్ని ప్రారంభించమని శ్రీకృష్ణుడు చెప్పారు (6.25). ఈ అభ్యాసాన్ని దృఢ నిశ్చయముతో మరియు ఉత్సాహంతోచేయమని ప్రోత్సహిస్తున్నారు (6.23). సమకాలీన సాహిత్యం కూడా ఏదైనా నైపుణ్యం సాధించడానికి పది వేల గంటల సాధన అవసరమని సూచిస్తుంది. ఈ ప్రక్రియలో, మనం సంకల్పం కూడా వదిలివేసి ఇంద్రియాలను నిగ్రహించాలి (6.24). ఇంద్రియాలను నిగ్రహించడం అనేది మనకు నచ్చిన ఇంద్రియ స్పందనలను పొందాలనే కోరికను నిరోధించడం తప్ప మరొకటి కాదు. ఒకసారి మనము ఇంద్రియాలకు అతీతమైన పరమానందాన్ని పొందితే ఎటువంటిదుఃఖాలు కూడా మనలను చలింపజేయవు అని శ్రీకృష్ణుడు హామీ ఇచ్చారు (6.22).
श्रीकृष्ण कहते हैं, "इस शरीर में स्थित पुरुष को साक्षी (दृष्टा),अनुमन्ता, भर्ता, भोक्ता, महेश्वर और परमात्मा भी कहा जाता है'' (13.23)। इस जटिलता को समझने के लिए आकाश सबसे अच्छा उदाहरण है। इसे इसके स्वरूप के आधार पर अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है जैसे एक कमरा, एक घर, एक बर्तन आदि। मूलतः, आकाश एक है और बाकी इसकी अभिव्यक्तियां हैं। श्रीकृष्ण आश्वासन देते हैं, "वे जो परमात्मा, जीवात्मा और प्रकृति के सत्य और तीनों गुणों की अन्तःक्रिया को समझ लेते हैं वे पुनः जन्म नहीं लेते। उनकी वर्तमान स्थिति चाहे जैसी भी हो वे मुक्त हो जाते हैं" (13.24)। प्रकृति में सबकुछ गुणों के कारण घटित होता है और पुरुष उन्हें दुःख और सुख के रूप में अनुभव करता है। इस बात की समझ हमें सुख और दुःख के बीच झूलने की दुर्गति से मुक्ति प्रदान करती है। श्रीकृष्ण ने पहले मुक्ति के बारे में एक अलग दृष्टिकोण से समझाया कि सभी स्थितियों में गुणों के द्वारा ही कर्म किए जाते हैं; जो अहंकार से मोहित हो जाता है वह सोचता है 'मैं कर्ता हूँ' (3.27)। जो यह जानता है कि गुणों के साथ गुण परस्पर क्रिया करते हैं, वह मुक्त हो जाता है (3.28)। मुक्ति का मतलब कुछ भी करने की स्वतंत्रता है। इससे यह तर्क सामने आता है कि यदि पाप या अपराध कहे जाने वाले कार्यों की अनुमति दी जाती है तो समाज कैसे जीवित रह सकता है। परन्तु इस तर्क में कमजोरी है कि यह घृणा को दबाकर पोषित रखने की अनुमति देता है। यह स्थिति तबतक रहेगी जबतक दबाकर रखी गई घृणा को व्यक्त न किया जाए। लेकिन श्रीकृष्ण कहते हैं कि उस घृणा को ही त्याग दो और अस्तित्व के साथ सामंजस्य अपने आप हो जाएगा। मानव शरीर एक चमत्कार है। हमारे शरीर में लगभग तीस ट्रिलियन कोशिकाएं और अन्य तीस ट्रिलियन बैक्टीरिया हैं जो आपस में तालमेल बनाए रखते हैं। सामंजस्य का सबसे अच्छा उदाहरण मानव शरीर है। इस तालमेल को बनाए रखने के लिए हमें कोई विशेष प्रयास नहीं करना पड़ता है। ऐसा शरीर की कोशिकाओं व बैक्टीरिया आदि के एकत्व के कारण होता है। मुक्ति और कुछ नहीं बल्कि चारों ओर एकत्व की अनुभूति है।
श्रीकृष्ण कहते हैं, "जान लो कि प्रकृति और पुरुष दोनों अनादि हैं। तीनों गुण और शरीर में होने वाले विकार (विकास या परिवर्तन) प्रकृति से पैदा होते हैं (13.20)। प्रकृति कारण और प्रभाव के लिए जिम्मेदार है, पुरुष सुख और दुःख के अनुभव के लिए जिम्मेदार है (13.21)। प्रकृति के प्रभाव में, पुरुष गुणों का अनुभव करता रहता है। गुणों के प्रति आसक्ति ही विभिन्न योनियों में जन्म का कारण है" (13.22)। परिवर्तन प्रकृति का नियम है जहां आज की स्थितियां कल की परिस्थितियों से भिन्न होती हैं। जबकि परिवर्तन नियम है, हम परिवर्तन के प्रति अपने प्रतिरोध के कारण दुःख पाते हैं क्योंकि इसके लिए स्वयं को बदलना पड़ता है। अतीत के बोझ और भविष्य से अपेक्षाओं के बिना वर्तमान क्षण में जीना ही इस प्रतिरोध से पार पाने का तरीका है। प्रकृति 'कारण और प्रभाव' के लिए जिम्मेदार है जिसे आमतौर पर भौतिक नियम कहा जाता है। पुरुष उन्हें सुख और दुःख के रूप में अनुभव करता है। जब पत्थर को ऊपर फेंकते हैं, तो वह नीचे आता है और जब बीज बोते हैं, तो अंकुरण होता है और यह सूची अनंत है। जब फूल खिलते हैं तो हमारी व्याख्या ही उन्हें सुंदर बनाती है। इसी प्रकार, मृत्यु या विनाश के दृश्य की व्याख्या दर्दनाक के रूप में की जाती है। अपनी-अपनी मनोस्थिति के आधार पर, एक ही स्थिति के लिए अलग-अलग व्यक्तियों की व्याख्याएं अलग-अलग होती हैं। परिणामस्वरूप, व्यक्ति सुख और दुःख; मिजाज में बदलाव और दोषारोपण के खेल से गुजरता है। श्रीकृष्ण ने पहले ऐसी व्याख्याओं को क्षणिक (अनित्य) बताया था और हमें उनको सहन करने को सीखने की सलाह दी थी (2.14)। सत्त्व, तमो और रजो गुण प्रकृति से उत्पन्न होते हैं। उनके प्रभाव में पुरुष विभिन्न समयों पर अलग-अलग अनुपातों में इन गुणों का अनुभव करता रहता है। यह अनुभव या भ्रम हमें विश्वास दिलाता है कि हम कर्ता हैं। हमारा आपसी बर्ताव गुणों के बीच परस्पर क्रिया का परिणाम हैं। इस सन्दर्भ में श्रीकृष्ण हमें बार-बार इन गुणों से परे जाकर गुणातीत बनने की सलाह देते हैं
మన మెదడు ఓక అద్భుతమైన అవయవం. దానికున్న ఓక ముఖ్యమైన లక్షణం ఏమిటంటే దానికి నొప్పి ఏమిటో తెలీదు ఎందుకంటే నొప్పిని గురించి మెదడుకు సూచనలు పంపే నోసిసెప్టార్లు మెదడులో ఉండవు. న్యూరో సర్జన్లు ఈ లక్షణాన్ని ఉపయోగించి మనిషి మేలుకొని ఉన్నప్పుడు మెదడు యొక్క శస్త్రచికిత్స చేస్తారు. శారీరక నొప్పులు మరియు ఆహ్లాదాలు మన మెదడు యొక్క తటస్థ స్థితితో పోల్చడం వలన కలిగే అనుభవాలు. అలాగేమానసిక భావాలకు కూడా ఇదే వర్తిస్తుంది. మనందరిలో ఒక తటస్థ బిందువు ఉంటుంది. ఈ తటస్థ బిందువుతో పోలిక సుఖము, దుఃఖముల యొక్క ధ్రువణాలకు దారి తీస్తుంది. ఈ నేపథ్యం శ్రీకృష్ణుడు చెప్పినది అర్థం చేసుకోవడానికి మనకు సహాయపడుతుంది, "ధ్యానయోగ సాధనం ద్వారానిగ్రహింపబడిన మనస్సు స్థిరమైనప్పుడు యోగి అంతరాత్మను దర్శనం చేసుకొని ఆత్మసంతృప్తి చెందుతాడు" (6.20). స్థిరపడటం అనేది కీలకం. అంటే చంచలమైన లేదా ఊగిసలాడే మనస్సును స్థిరపరచడం. దానిని సాధించేందుకుశ్రీకృష్ణుడు నిగ్రహమును పాటించాలని సూచిస్తారు. నిగ్రహము అంటే మన భావాలను అణచివేయడం లేదా వాటి వ్యక్తీకరణ కాదు. ఇది అవగాహనతో మనలో ఉత్పన్నమయ్యే ఈ భావాలనుసాక్షి లాగా చూస్తూ ఉండడం. మనం ఎదుర్కొన్న గత పరిస్థితులను విశ్లేషించడం ద్వారా ఈ నిగ్రహాన్ని సులభంగా సాధించవచ్చు. ఒకసారి మనం నిగ్రహం అనే కళలో ప్రావీణ్యం పొందిన తర్వాత, ఆ తటస్థ బిందువు అంటే అత్యున్నత ఆనందాన్ని చేరుకోవడానికి సుఖము, దుఃఖము యొక్క ధ్రువణాలను అధిగమిస్తాము. ఈ విషయంలో శ్రీకృష్ణుడు ఇలా అంటారు,"ఇంద్రియాతీతమైన మరియు పవిత్ర సూక్ష్మ బుద్ధి ద్వారా మాత్రమే గ్రాహ్యమైన బ్రహ్మానందమును అనుభవించుచు దానియుందే స్థితుడైయున్న యోగి వాస్తవికతనుండి ఏమాత్రము విచలితుడు కానేకాడు" (6.21). పరమానందం ఇంద్రియాలకు అతీతమైనది. ఈ స్థితిలో, ఇతరుల నుండి ప్రశంసలు లేదా రుచికరమైన ఆహారం మొదలైనవాటి అవసరం ఉండదు. మనమందరం ఈ ఆనందాన్ని ధ్యానంలో లేదా నిష్కామ కర్మలు చేసిన క్షణాలలో పొందుతాము. మన భాద్యత ఏమిటంటే ఈ క్షణాలను గుర్తించి మన అన్ని జీవిత క్షణాలలో విస్తరింపజేయడం.
श्रीकृष्ण कहते हैं, "परमात्मा सबका पालनकर्ता, संहारक और सभी जीवों का जनक है। वे अविभाज्य हैं, फिर भी सभी जीवित प्राणियों में विभाजित प्रतीत होते हैं (13.17)। वे समस्त प्रकाशमयी पदार्थों के प्रकाश स्रोत हैं, वे सभी प्रकार की अज्ञानता के अंधकार से परे हैं। वे ज्ञान हैं, वे ज्ञान का विषय हैं और ज्ञान का लक्ष्य हैं। वे सभी जीवों के हृदय में निवास करते हैं (13.18)। इसे जानकर मेरे भक्त मेरी दिव्य प्रकृति को प्राप्त होते हैं" (13.19)। श्रीकृष्ण ने पहले कहा था कि जो योग में सिद्धि प्राप्त करता है वह ज्ञान को स्वयं में ही पाता है (4.38)। इसी विषय का श्रीकृष्ण "वह सभी के दिलों में वास करते हैं" के रूप में उल्लेख करते हैं। श्रद्धावान और जितेंद्रिय ज्ञान पाकर परम शांति प्राप्त करते हैं (4.39)। श्रद्धा से रहित अज्ञानी नष्ट हो जाता है और उसे इस लोक या परलोक में कोई सुख नहीं मिलता (4.40)। परमात्मा सभी जीवित प्राणियों में विभाजित प्रतीत होते हैं, जबकि वे अविभाज्य हैं। अस्तित्व के स्तर पर इस तत्त्व को समझने में असमर्थता हमें तकलीफ देती है। यह कहावती हाथी और पांच अंधे लोगों की तरह है जो हाथी के केवल एक हिस्से को ही समझ पाते हैं जिससे मतभेद और विवाद पैदा होते हैं। वर्तमान वैज्ञानिक समझ भी पूरे ब्रह्मांड में व्याप्त क्वांटम क्षेत्र के संदर्भ में इस ‘अविभाज्यता’ की ओर इशारा करती है। पदार्थ या कण क्वांटम क्षेत्र में उत्तेजना के अलावा और कुछ नहीं हैं। इस 'अविभाज्यता' या एकता को विकसित करने का एक आसान तरीका यह है कि बिना कोई धारणा बनाए दूसरों के दृष्टिकोण को समझना शुरू करें और शंका होने पर प्रश्न करें। जब कोई माता या पिता बनता है तब शिशु की आवश्यकताओं को समझने के लिए या जब कोई कार्यस्थल में उच्च पदों पर पहुंचता है तब यह स्वाभाविक रूप से आता है। कुंजी यह है कि इस सीख को जीवन के हर पहलू में विस्तारित करना है। विपरीतों को एक में मिलाना ही परमात्मा को पाने की कुंजी है क्योंकि वह दोनों ही हैं। यह कुछ और नहीं बल्कि ‘मन रहित’ होने की स्थिति है जहाँ मन विभाजन करना बंद कर देता है।

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