Gita Acharan
Podcast by Siva Prasad
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541 jaksotਸ੍ਰੀ ਕਿਸ਼ਨ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ ਕਿ ਜੋ ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨ ਦੀ ਪੱਕੀ ਸਮਝ ਰੱਖਦੇ ਹਨ ਅਤੇ ਕਿਸੇ ਭਰਮ ਵਿੱਚ ਨਹੀਂ ਪੈਂਦੇ, ਉਹ ਨਾ ਤਾਂ ਕੋਈ ਚੰਗੀ ਚੀਜ਼ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰਕੇ ਖੁਸ਼ ਹੁੰਦੇ ਹਨ ਅਤੇ ਨਾ ਹੀ ਕਿਸੇ ਦੁੱਖਦਾਈ ਅਨੁਭਵ ਕਾਰਨ ਦੁਖੀ ਹੁੰਦੇ ਹਨ, ਉਹ ਸ਼ਖਸ਼ ਪਾਰਬ੍ਰਹਮ ਵਿੱਚ ਸਥਿਤ ਹੁੰਦੇ ਹਨ (5.20)। ਅਸੀਂ ਪਰਿਸਥਿਤੀਆਂ ਅਤੇ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਸੁੱਖ ਅਤੇ ਦੁੱਖ ਦੇ ਰੂਪ ਵਿੱਚ ਚਿੰਨ੍ਹਤ ਕਰਦੇ ਹਾਂ। ਸਾਨੂੰ ਜ਼ਰੂਰੀ ਰੂਪ ਵਿੱਚ ਅਜਿਹੇ ਵਰਗੀਕਰਨ ਨੂੰ ਛੱਡਣਾ ਹੈ। ਸ੍ਰੀ ਕ੍ਰਿਸ਼ਨ ਵਾਰ-ਵਾਰ ਅਰਜਨ ਨੂੰ ਮੋਹ ਵਿੱਚੋਂ ਬਾਹਰ ਨਿਕਲਣ ਲਈ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ ਜਿਹੜਾ ਕਿ ਇਸ ਭਰਮ ਵਿੱਚੋਂ ਪੈਦਾ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ਕਿ ਕੀ ਸਾਡਾ ਹੈ ਤੇ ਕੀ ਸਾਡਾ ਨਹੀਂ ਹੈ। ਸਾਡਾ ਸਭ ਤੋਂ ਵੱਡਾ ਭਰਮ ਇਹ ਹੈ ਕਿ ਅਸੀਂ ਆਪਣੀਆਂ ਇੰਦਰੀਆਂ ਦੇ ਮਾਧਿਅਮ ਨਾਲ ਸੁੱਖ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰ ਸਕਦੇ ਹਾਂ। ਦੂਜੇ ਪਾਸੇ ਸ੍ਰੀ ਕ੍ਰਿਸ਼ਨ ਸਦੀਵੀ ਆਨੰਦ ਲਈ ਸਾਨੂੰ ਇਕ ਸਮਾਧਾਨ (ਉਪਾਅ) ਦਿੰਦੇ ਹਨ, ਜਦੋਂ ਉਹ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ ਕਿ ਜੋ ਲੋਕ ਬਾਹਰੀ ਇੰਦਰੀ ਸੁੱਖਾਂ ਨਾਲ ਜੁੜੇ ਹੋਏ ਨਹੀਂ ਹਨ ਉਹ ਆਪਣੇ ਆਪ ਵਿੱਚ ਸਦੀਵੀ ਅਨੰਦ ਨੂੰ ਮਾਣਦੇ ਹਨ। ਯੋਗ ਦੁਆਰਾ ਈਸ਼ਵਰ ਨਾਲ ਜੁੜ ਕੇ ਉਹ ਸਦੀਵੀ ਅਨੰਦ ਦਾ ਅਨੁਭਵ ਕਰਦੇ ਹਨ (5.21)। ਸ੍ਰੀ ਕ੍ਰਿਸ਼ਨ ਨੇ ਚਿਤਾਵਨੀ ਦਿੱਤੀ ਹੈ ਕਿ ਸੰਸਾਰਿਕ ਵਿਸ਼ਿਆਂ ਦੇ ਸੰਪਰਕ ਨਾਲ ਉਤਪੰਨ ਹੋਣ ਵਾਲੇ ਸੁੱਖ, ਭਾਵੇਂ ਸੰਸਾਰਕ ਲੋਕਾਂ ਲਈ ਸੁੱਖੀ ਹੋਣਾ ਪ੍ਰਤੀਤ ਹੁੰਦੇ ਹਨ, ਪਰ ਅਸਲ ਵਿੱਚ ਉਹ ਦੁੱਖ ਦਾ ਸ੍ਰੋਤ ਹਨ। ਅਜਿਹੇ ਸੁੱਖਾਂ ਦਾ ਕੋਈ ਆਦਿ ਅਤੇ ਅੰਤ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦਾ ਹੈ, ਇਸ ਲਈ ਬੁੱਧੀਵਾਨ ਲੋਕ ਇਸ ਤੋਂ ਪ੍ਰਸੰਨ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦੇ (5.22)। ਇਹ ਜੋ ਗੀਤਾ ਦੇ ਆਰੰਭ ਵਿੱਚ ਹੀ ਸ੍ਰੀ ਕ੍ਰਿਸ਼ਨ ਨੇ ਕਿਹਾ ਹੈ ਉਸ ਦਾ ਹੀ ਵਿਸਥਾਰ ਹੈ (2.14)। ਬਾਹਰੀ ਵਸਤੂਆਂ ਦੇ ਨਾਲ ਇੰਦਰੀਆਂ ਦਾ ਮਿਲਾਪ ਸੁੱਖ ਅਤੇ ਦੁੱਖ ਜਿਹੇ ਦਵੰਧ ਦਾ ਕਾਰਨ ਬਣਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਸਾਨੂੰ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਸਹਿਣ ਕਰਨਾ ਸਿੱਖਣਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ ਕਿਉਂਕਿ ਉਹ ‘ਅਨਿੱਤ’ ਜਾਂ ‘ਅਸਥਾਈ’ ਹਨ। ਇਸ ਦਾ ਅਰਥ ਹੈ ਕਿ ਕਾਲਚੱਕਰ ਵਿੱਚ ਸੁੱਖ ਅਤੇ ਦੁੱਖ ਦੋਵਾਂ ਦਾ ਅੰਤ ਹੋਣਾ ਨਿਸ਼ਚਿਤ ਹੈ। ਇਹ ਸਾਡਾ ਅਨੁਭਵ ਹੈ ਕਿ ਜਦੋਂ ਸੁੱਖ ਚਲਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ, ਜਾਂ ਜਦੋਂ ਅਸੀਂ ਤੰਗ ਹੋ ਜਾਂਦੇ ਹਾਂ, ਤਾਂ ਅਸੀਂ ਦੁਖੀ ਹੁੰਦੇ ਹਾਂ। ਇਸੇ ਤਰ੍ਹਾਂ ਜਦੋਂ ਦੁੱਖ ਦੂਰ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ, ਤਾਂ ਸਾਨੂੰ ਖੁਸ਼ੀ ਦਾ ਅਨੁਭਵ ਹੁੰਦਾ ਹੈ। ਇਨ੍ਹਾਂ ਉੱਤੇ ਕਾਬੂ ਪਾਉਣ ਲਈ ਅਸੀਂ ਬੀਤੀ ਹੋਈ ਖੁਸ਼ੀ ਦੇ ਛਿਣਾਂ ਨੂੰ ਮੁੜ-ਮੁੜ ਮਹਿਸੂਸ ਕਰਦੇ ਹਾਂ ਜਾਂ ਇਕ ਦੂਜੇ ਉੱਤੇ ਉਸ ਦੇ ਦੋਸ਼ ਲਾਉਣ ਉੱਤੇ ਲੱਗ ਜਾਂਦੇ ਹਾਂ। ਪਰ ਸਾਰ ਤੱਤ ਇਹ ਹੈ ਕਿ ਜਦੋਂ ਅਸੀਂ ਸੁੱਖ ਜਾਂ ਦੁੱਖ ਵਿੱਚੋਂ ਗੁਜ਼ਰਦੇ ਹਾਂ ਤਾਂ ਉਸ ਦੀ ਸਦੀਵਤਾ ਦੇ ਬਾਰੇ ਵਿੱਚ ਜਾਗਰੂਕ ਰਹੀਏ।
Krishna says, "I have created four varnas (divisions) based on differentiation of gunas and karmas, but know Me to be the non-doer and immutable (4.13). Brahmins, Kshatriyas, Vaishyas, and Shudras perform karmas according to the gunas springing from their nature" (18.41). Firstly, our divisive mind builds hierarchies around us. Secondly, falsehood is nothing but a manipulated truth. Together, a falsehood was built that the divisions are based on birth and are hierarchical. But, the simple truth is that humans are of four types because of the gunas and karmas. Moreover, this division is not a tool to judge a person. These facts need to be kept in mind while understanding verses dealing with varnas or castes which still dominate the social and political fabric of our society. While explaining gunas, Krishna says, "Three gunas of satva, rajas and tamas bind the soul (14.5). Satva binds through attachment to knowledge (14.6). Rajas binds the embodied soul through attachment to action (14.7). Tamas binds through sleep" (14.8). Essentially, each guna binds us in one way or another. One guna may be dominant in us throughout our lives determining our personality. But, each day of our life is a product of the interplay of these gunas. For example, when we are given a task in the office which requires additional knowledge, satva helps us to attain it. Rajas is the desire to execute tasks as per the deadline. By the end of the day when we get tired, tamas helps us with sleep. Similarly, if we are driving to a new place, knowing the direction is satvik and driving is rajas. Binding is another name for guna and dependence on them is bondage. Golden handcuffs don't make bondage any better than iron ones. Guna-ateeth is transcending this bondage to attain ultimate freedom where gunas become tools.
रामायण की कथा के अनुसार, राजा बाली अजेय था क्योंकि उसमें किसी भी मुकाबले में अपने दुश्मन की आधी ताकत छीन लेने की क्षमता थी। यहां तक कि भगवान राम को भी उसे पेड़ के पीछे छुपकर मारना पड़ा। यह दर्शाता है कि बाली एक अनूठा शिक्षार्थी था जो लोगों और परिस्थितियों से कौशल और ज्ञान प्राप्त करता था क्योंकि वह दूसरों में शत्रुता के बजाय परमात्मा को देखता था। जब भी हम शत्रुता करते हैं तो घृणा पैदा होती है जो परमात्मा को देखने की क्षमता को हर लेती है। श्रीकृष्ण ने पहले कहा था कि सारा संसार उन्हीं से व्याप्त है (9.4) जो इंगित करता है कि प्रत्येक व्यक्ति या स्थिति परमात्मा का एक रूप है। इस मूल तथ्य के बारे में हमारी अज्ञानता के कारण हम 'बाली' की तरह सीख नहीं पाते। इस संबंध में श्रीकृष्ण कहते हैं, "अज्ञानी, सभी प्राणियों के निर्माता के रूप में मेरी पारलौकिक प्रकृति से अनजान, मानव रूप में मेरी उपस्थिति को भी नकारते हैं" (9.11)। यह एक गहरा अहसास है कि वह हमारे आस-पास के हर व्यक्ति में व्याप्त हैं, चाहे हम उन लोगों को पसंद करें या नहीं। यह कर्मकांडी होने या भगवान की स्तुति करने के बारे में नहीं है। अज्ञानी से महात्मा बनना एक लंबी यात्रा है जिसमें दृढ़ संकल्प के साथ-साथ नियमित अभ्यास की आवश्यकता होती है (6.23)। अज्ञानता के बारे में श्रीकृष्ण कहते हैं, "वे व्यर्थ आशा, व्यर्थ कर्म, व्यर्थ ज्ञान वाले विकृत चित्त अज्ञानीजन, राक्षसी, आसुरी और मोहिनी प्रकृति को ही धारण किए रहते हैं" (9.12)। महात्मा के बारे में श्रीकृष्ण कहते हैं कि, "मेरी दैवी प्रकृति के आश्रित महात्माजन मुझको सब भूतों का सनातन कारण और नाशरहित अक्षरस्वरूप जानकर अनन्य मन से युक्त होकर निरंतर भजते हैं (9.13)। वे दृढ़ निश्चय वाले भक्तजन निरन्तर मेरे नाम और गुणों का कीर्तन करते हुए तथा मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करते हुए और मुझको बार-बार प्रणाम करते हुए सदा मेरे ध्यान में युक्त होकर अनन्य प्रेम से मेरी उपासना करते हैं (9.14)। दूसरे मनुष्य सभी दिशाओं में स्थित मुझ विराटस्वरूप परमेश्वर की अनेक प्रकार से उपासना करते हैं" (9.15)। सर्वव्यापी परमात्मा को प्रणाम करना ही कुंजी है, चाहे वह हमारे आस पास किसी भी रूप में हों। यह हमें घृणा को त्यागकर कर्म करने में मदद करेगा जिससे हर स्थिति में सर्वश्रेष्ठ प्राप्त कर पाएंगे (5.3)।
Krishna explained about the three gunas or characteristics of nature viz. Satva, Rajo and Tamo on various occasions in the Bhagavad Gita. He declares that no living being on earth or the higher celestial abodes of this material realm is free from the influence of these three gunas (18.40). This implies that at any given point of time we are under the influence of one guna or another. Krishna cautioned (3.27-3.29) that karmas (actions) in all situations are performed by the gunas; one who is deluded by ahankaar thinks 'I am kartha (doer)'. One who knows that gunas interact with gunas is not attached. Gunas have the ability to hypnotize us and under their influence we are attached to the functions of gunas. In chapters seventeen and eighteen, some functions of gunas like worship, food, yagna, tapah (of body, speech and mind), daan (charity), knowledge, karma, kartha, intellect, dhruti (fortitude) and happiness, were explained. Krishna gave a way forward and encouraged us to transcend these gunas to be guna-ateeth who are alike in happiness and distress; who are established in the self; remain the same amidst pleasant and unpleasant events; accept both criticism and praise with equanimity; remain the same in respect and insult; treat both friend and foe alike; and abandon all delusions of karta (14.24-14.25). While the nature of karta depends on the guna under whose influence the karta is at a given point of time, Krishna explained that the guna-ateeth abandons the delusion of karta altogether. Similarly, in the context of sukh (happiness), the types of happiness vary depending on the guna. But for a guna-ateeth, there is no preference for a particular sukh nor resistance to any dukh. In a nutshell, it is realising that life is an interplay of gunas.
विज्ञान के अनुसार ‘हिग्स क्षेत्र’ एक अदृश्य ऊर्जा क्षेत्र है जो संपूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। इस क्षेत्र के साथ अंतःक्रिया से उप-परमाणविक कणों को वजन मिलता है। इन उप-परमाणविक कणों का संयोजन ही हमारे चारों ओर दिखने वाला पदार्थ हैं। जबकि उप-परमाणविक कणों को वजन पाने के लिए ‘हिग्स क्षेत्र’ की आवश्यकता होती है, ‘हिग्स क्षेत्र’ को अपने अस्तित्व के लिए किसी की आवश्यकता नहीं होती है। उपरोक्त वैज्ञानिक प्रतिमान हमें समझने में मदद करेगा जब श्रीकृष्ण कहते हैं, "मेरे अव्यक्त रूप से सारा जगत व्याप्त है, सभी प्राणी मुझमें स्थित हैं किन्तु मैं उनमें स्थित नहीं हूँ (9.4)। वे सब प्राणी मुझमें स्थित नहीं हैं; किन्तु मेरे दिव्य योगशक्ति को देखो! मैं प्राणियों को जन्म देता हूँ और उनका धारण-पोषण करता हूँ किन्तु मैं उनमें स्थित नहीं हूँ" (9.5)। अर्जुन को समझाने के लिए श्रीकृष्ण एक उदाहरण देते हुए कहते हैं, "जैसे सर्वत्र विचरने वाला वायु सदा आकाश में ही स्थित है, वैसे ही यह जान लो कि समस्त प्राणी मुझमें ही स्थित हैं" (9.6)। वायु या चक्रवात चाहे कितना भी शक्तिशाली या विनाशकारी क्यों न हो, फिर भी वह आकाश में ही रहेगा। श्रीकृष्ण कहते हैं, "कल्पों के अंत में सभी प्राणी मेरी प्रकृति में लीन हो जाते हैं व कल्पों के आरम्भ में उनको मैं फिर रचता हूँ (9.7)। अपनी प्रकृति को अङ्गीकार करके स्वभाव की वजह से परतंत्र हुए सम्पूर्ण प्राणियों को बार-बार उनके कर्मों के अनुसार रचता हूँ" (9.8)। यह प्रकृति की शक्ति के द्वारा अव्यक्त से व्यक्त की सामंजस्यपूर्ण रचना है। श्रीकृष्ण कहते हैं, "उन कर्मों में आसक्तिरहित मुझ परमात्मा को वे कर्म नहीं बांधते" (9.9)। कुंजी अनासक्ति है। जबकि हम चीजों या उपलब्धियों से बंधे रहते हैं, परमात्मा अपनी शक्तिशाली रचनाओं से बंधे नहीं होते हैं। जब हम स्वयं को कर्ता मानते हैं, तो हम अपने कर्मों के द्वारा कर्मबंधन में बंध जाते हैं, जबकि परमात्मा एक साक्षी की तरह हैं जो बंधे हुए नहीं होते।
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