Gita Acharan

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Podcast by Siva Prasad

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Bhagavad Gita is a conversation between Lord Krishna and Warrior Arjun. The Gita is Lord's guidance to humanity to be joyful and attain moksha (salvation) which is the ultimate freedom from all the polarities of the physical world. He shows many paths which can be adopted based on one's nature and conditioning. This podcast is an attempt to interpret the Gita using the context of present times. Siva Prasad is an Indian Administrative Service (IAS) officer. This podcast is the result of understanding the Gita by observing self and lives of people for more than 25 years, being in public life.

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episode 195. प्रकृति और पुरुष artwork
195. प्रकृति और पुरुष

श्रीकृष्ण कहते हैं, "जान लो कि प्रकृति और पुरुष दोनों अनादि हैं। तीनों गुण और शरीर में होने वाले विकार (विकास या परिवर्तन) प्रकृति से पैदा होते हैं (13.20)। प्रकृति कारण और प्रभाव के लिए जिम्मेदार है, पुरुष सुख और दुःख के अनुभव के लिए जिम्मेदार है (13.21)। प्रकृति के प्रभाव में, पुरुष गुणों का अनुभव करता रहता है। गुणों के प्रति आसक्ति ही विभिन्न योनियों में जन्म का कारण है" (13.22)।  परिवर्तन प्रकृति का नियम है जहां आज की स्थितियां कल की परिस्थितियों से भिन्न होती हैं। जबकि परिवर्तन नियम है, हम परिवर्तन के प्रति अपने प्रतिरोध के कारण दुःख पाते हैं क्योंकि इसके लिए स्वयं को बदलना पड़ता है। अतीत के बोझ और भविष्य से अपेक्षाओं के बिना वर्तमान क्षण में जीना ही इस प्रतिरोध से पार पाने का तरीका है।  प्रकृति 'कारण और प्रभाव' के लिए जिम्मेदार है जिसे आमतौर पर भौतिक नियम कहा जाता है। पुरुष उन्हें सुख और दुःख के रूप में अनुभव करता है। जब पत्थर को ऊपर फेंकते हैं, तो वह नीचे आता है और जब बीज बोते हैं, तो अंकुरण होता है और यह सूची अनंत है। जब फूल खिलते हैं तो हमारी व्याख्या ही उन्हें सुंदर बनाती है। इसी प्रकार, मृत्यु या विनाश के दृश्य की व्याख्या दर्दनाक के रूप में की जाती है। अपनी-अपनी मनोस्थिति के आधार पर, एक ही स्थिति के लिए अलग-अलग व्यक्तियों की व्याख्याएं अलग-अलग होती हैं। परिणामस्वरूप, व्यक्ति सुख और दुःख; मिजाज में बदलाव और दोषारोपण के खेल से गुजरता है। श्रीकृष्ण ने पहले ऐसी व्याख्याओं को क्षणिक (अनित्य) बताया था और हमें उनको सहन करने को सीखने की सलाह दी थी (2.14)।  सत्त्व, तमो और रजो गुण प्रकृति से उत्पन्न होते हैं। उनके प्रभाव में पुरुष विभिन्न समयों पर अलग-अलग अनुपातों में इन गुणों का अनुभव करता रहता है। यह अनुभव या भ्रम हमें विश्वास दिलाता है कि हम कर्ता हैं। हमारा आपसी बर्ताव गुणों के बीच परस्पर क्रिया का परिणाम हैं। इस सन्दर्भ में श्रीकृष्ण हमें बार-बार इन गुणों से परे जाकर गुणातीत बनने की सलाह देते हैं

14.10.2025 - 3 min
episode 117. నిగ్రహము అనే కళ artwork
117. నిగ్రహము అనే కళ

మన మెదడు ఓక అద్భుతమైన అవయవం. దానికున్న ఓక ముఖ్యమైన లక్షణం ఏమిటంటే దానికి నొప్పి ఏమిటో తెలీదు ఎందుకంటే నొప్పిని గురించి మెదడుకు సూచనలు పంపే నోసిసెప్టార్లు మెదడులో ఉండవు. న్యూరో సర్జన్లు ఈ లక్షణాన్ని ఉపయోగించి మనిషి మేలుకొని ఉన్నప్పుడు మెదడు యొక్క శస్త్రచికిత్స చేస్తారు. శారీరక నొప్పులు మరియు ఆహ్లాదాలు మన మెదడు యొక్క తటస్థ స్థితితో పోల్చడం వలన కలిగే అనుభవాలు. అలాగేమానసిక భావాలకు కూడా ఇదే వర్తిస్తుంది. మనందరిలో ఒక తటస్థ బిందువు ఉంటుంది. ఈ తటస్థ బిందువుతో పోలిక సుఖము, దుఃఖముల యొక్క ధ్రువణాలకు దారి తీస్తుంది. ఈ నేపథ్యం శ్రీకృష్ణుడు చెప్పినది అర్థం చేసుకోవడానికి మనకు సహాయపడుతుంది,  "ధ్యానయోగ సాధనం ద్వారానిగ్రహింపబడిన మనస్సు స్థిరమైనప్పుడు యోగి అంతరాత్మను దర్శనం చేసుకొని ఆత్మసంతృప్తి చెందుతాడు" (6.20). స్థిరపడటం అనేది కీలకం. అంటే చంచలమైన లేదా ఊగిసలాడే మనస్సును స్థిరపరచడం. దానిని సాధించేందుకుశ్రీకృష్ణుడు నిగ్రహమును పాటించాలని సూచిస్తారు. నిగ్రహము అంటే మన భావాలను అణచివేయడం లేదా వాటి వ్యక్తీకరణ కాదు. ఇది అవగాహనతో మనలో ఉత్పన్నమయ్యే ఈ భావాలనుసాక్షి లాగా చూస్తూ ఉండడం. మనం ఎదుర్కొన్న గత పరిస్థితులను విశ్లేషించడం ద్వారా ఈ నిగ్రహాన్ని సులభంగా సాధించవచ్చు. ఒకసారి మనం నిగ్రహం అనే కళలో ప్రావీణ్యం పొందిన తర్వాత, ఆ తటస్థ బిందువు అంటే అత్యున్నత ఆనందాన్ని చేరుకోవడానికి సుఖము, దుఃఖము యొక్క ధ్రువణాలను అధిగమిస్తాము. ఈ విషయంలో శ్రీకృష్ణుడు ఇలా అంటారు,"ఇంద్రియాతీతమైన మరియు పవిత్ర సూక్ష్మ బుద్ధి ద్వారా మాత్రమే గ్రాహ్యమైన బ్రహ్మానందమును అనుభవించుచు దానియుందే స్థితుడైయున్న యోగి వాస్తవికతనుండి ఏమాత్రము విచలితుడు కానేకాడు" (6.21). పరమానందం ఇంద్రియాలకు అతీతమైనది. ఈ స్థితిలో, ఇతరుల నుండి ప్రశంసలు లేదా రుచికరమైన ఆహారం మొదలైనవాటి అవసరం ఉండదు. మనమందరం ఈ ఆనందాన్ని ధ్యానంలో లేదా నిష్కామ కర్మలు చేసిన క్షణాలలో పొందుతాము. మన భాద్యత ఏమిటంటే ఈ క్షణాలను గుర్తించి మన అన్ని జీవిత క్షణాలలో విస్తరింపజేయడం.

03.10.2025 - 3 min
episode 194. परमात्मा सभी के दिलों में बसते हैं artwork
194. परमात्मा सभी के दिलों में बसते हैं

श्रीकृष्ण कहते हैं, "परमात्मा सबका पालनकर्ता, संहारक और सभी जीवों का जनक है। वे अविभाज्य हैं, फिर भी सभी जीवित प्राणियों में विभाजित प्रतीत होते हैं (13.17)। वे समस्त प्रकाशमयी पदार्थों के प्रकाश स्रोत हैं, वे सभी प्रकार की अज्ञानता के अंधकार से परे हैं। वे ज्ञान हैं, वे ज्ञान का विषय हैं और ज्ञान का लक्ष्य हैं। वे सभी जीवों के हृदय में निवास करते हैं (13.18)। इसे जानकर मेरे भक्त मेरी दिव्य प्रकृति को प्राप्त होते हैं" (13.19)।  श्रीकृष्ण ने पहले कहा था कि जो योग में सिद्धि प्राप्त करता है वह ज्ञान को स्वयं में ही पाता है (4.38)। इसी विषय का श्रीकृष्ण "वह सभी के दिलों में वास करते हैं" के रूप में उल्लेख करते हैं। श्रद्धावान और जितेंद्रिय ज्ञान पाकर परम शांति प्राप्त करते हैं (4.39)। श्रद्धा से रहित अज्ञानी नष्ट हो जाता है और उसे इस लोक या परलोक में कोई सुख नहीं मिलता (4.40)।  परमात्मा सभी जीवित प्राणियों में विभाजित प्रतीत होते हैं, जबकि वे अविभाज्य हैं। अस्तित्व के स्तर पर इस तत्त्व को समझने में असमर्थता हमें तकलीफ देती है। यह कहावती हाथी और पांच अंधे लोगों की तरह है जो हाथी के केवल एक हिस्से को ही समझ पाते हैं जिससे मतभेद और विवाद पैदा होते हैं।  वर्तमान वैज्ञानिक समझ भी पूरे ब्रह्मांड में व्याप्त क्वांटम क्षेत्र के संदर्भ में इस ‘अविभाज्यता’ की ओर इशारा करती है। पदार्थ या कण क्वांटम क्षेत्र में उत्तेजना के अलावा और कुछ नहीं हैं।  इस 'अविभाज्यता' या एकता को विकसित करने का एक आसान तरीका यह है कि बिना कोई धारणा बनाए दूसरों के दृष्टिकोण को समझना शुरू करें और शंका होने पर प्रश्न करें। जब कोई माता या पिता बनता है तब शिशु की आवश्यकताओं को समझने के लिए या जब कोई कार्यस्थल में उच्च पदों पर पहुंचता है तब यह स्वाभाविक रूप से आता है। कुंजी यह है कि इस सीख को जीवन के हर पहलू में विस्तारित करना है।   विपरीतों को एक में मिलाना ही परमात्मा को पाने की कुंजी है क्योंकि वह दोनों ही हैं। यह कुछ और नहीं बल्कि ‘मन रहित’ होने की स्थिति है जहाँ मन विभाजन करना बंद कर देता है।

03.10.2025 - 3 min
episode 116. ఆధ్యాత్మికతకు సులభమైన మార్గం artwork
116. ఆధ్యాత్మికతకు సులభమైన మార్గం

ఆధ్యాత్మిక మార్గం గురించి ఒక సాధారణ భావన ఏమిటంటే దానిని అనుసరించడం కష్టతరమైనది. అందువలననే, చిన్న ప్రయత్నాల ద్వారా కర్మయోగంలో పెద్ద లాభాలను పొందగలమని శ్రీకృష్ణుడు ఇంతకుముందు హామీ ఇచ్చారు(2.40). దీనిని మరింత సులభతరం చేస్తూ శ్రీకృష్ణుడు ఈ విధముగా చెప్పారు, "ఆహారవిహారాదులయందును, కర్మాచరణముల యందును, జాగ్రత్స్వప్నాదుల యందును, యథాయోగ్యముగా ప్రవర్తించు వానికి దుఃఖనాశకమగు ధ్యాన యోగము సిద్ధించును" (6.17). యోగము లేదా ఆధ్యాత్మిక మార్గం అంటే ఆకలితో ఉన్నప్పుడు తినడం; పని చేయడానికి సమయం వచ్చినప్పుడు పని చేయడం; నిద్రించవలసిన సమయంలో నిద్రపోవడం మరియు అలిసిపోయినప్పుడు విశ్రాంతి తీసుకోవడం అంత సులభం. ఇంతకు మించినది ఏదైనా మనకు మరియు ఇతరులకు మనం చెప్పే కథలు మాత్రమే. వృద్ధుల కంటే శిశువుకు ఎక్కువ నిద్ర అవసరం ఉంటుంది. ఆహారానికి సంబంధించి మన అవసరాలు రోజులోని శారీరక శ్రమ ఆధారంగా మారవచ్చు. శ్లోకములో ఉల్లేఖించబడిన ‘యథాయోగ్యము' అంటే వర్తమానంలో అవగాహనతో జీవించడము అని సూచిస్తుంది. దీనినే అంతకుముందు కర్తవ్య కర్మలు (6.1) లేదా శాస్త్రవిహిత కర్మలు (3.8) గా సూచించబడింది. దీనికి భిన్నంగా మన మెదడు విషయాలను  ఆధారంగాతీసుకొని విస్తృతంగా ఆలోచించి దానికి మన ఊహాజనిత సామర్ద్యాన్ని జోడించి ఆ విషయాల చుట్టూ సంక్లిష్టమైన కథనాలు అల్లుతుంది. మనకు మనం చెప్పుకునే ఈ కథలే మనలో ఒకరినినాయకుడిగానూ మరొకరిని ప్రతి నాయకుడుగానూ, కొన్ని పరిస్థితులను ఆహ్లాదమైనవిగానూ, మరికొన్నింటిని కష్టదాయక మైనవిగానూ చూపిస్తాయి. ఈ కథనాలే మన మాటలను,ప్రవర్తనను నియంత్రిస్తాయి. అందుకే శ్రీకృష్ణుడు ఇటువంటి కథనాలు చెప్పే మనస్సును నియంత్రణలో పెట్టుకోవాలని ఉపదేశిస్తున్నారు. మనస్సును అదుపులో పెట్టుకోవటానికి అన్ని రకాల కోరికలను త్యజిస్తే పరమాత్మతో లీనం అవుతామనిబోధిస్తున్నారు (6.18).  "గాలి లేని చోట దీపం ఎలా నిశ్చలముగా ఉండునో అలాగే యోగికి వశమైయున్న చిత్తము పరమాత్మ ధ్యానమున నిమగ్నమైయున్నప్పుడు నిర్వికారముగా, నిశ్చలముగానుండును" అని శ్రీకృష్ణుడు చెప్తున్నారు (6.19). శ్రీకృష్ణుడు ఇంతకూముందు తాబేలు (2.58); నదులు మరియు మహాసముద్రం యొక్క (2.70) ఉదాహరణలను ఇచ్చారు. ఇక్కడ నదులు సముద్రంలోకి ప్రవేశించిన తర్వాత వాటి ఉనికిని కోల్పోతాయి. అనేక నదులు ప్రవేశించిన తర్వాత కూడా సముద్రం ప్రశాంతంగా ఉంటుంది. అదేవిధంగా,స్థిరంగా ఉన్న యోగి  మనస్సులో కోరికలు ప్రవేశించినప్పుడు వాటి ఉనికిని కోల్పోతాయి.

26.9.2025 - 3 min
episode 193. पास होकर भी दूर artwork
193. पास होकर भी दूर

एक बार एक पिता अपने दस साल के बेटे को खेल के मैदान में ले गया। उसने एक गेंद फेंकी और खेल का नियम यह था कि लड़के को गेंद वापस लाकर अपने पिता को देना है। मैदान खिलौनों से भरा था। रास्ते में, लड़के का ध्यान एक खिलौने की तरफ आकर्षित होता है और वह उसके साथ खेलना शुरू कर देता है। तब उसके पिता उसे गेंद के बारे में याद दिलाने के लिए आवाज लगाते हैं। वह खिलौने को छोड़कर फिर से गेंद के पीछे दौड़ना शुरू कर देता है।  खेल के मैदान में अन्य बच्चे भी थे। इस बार लड़के को एक और आकर्षक खिलौना मिल जाता है और वह उससे खेलना शुरू कर देता है। तभी एक ताकतवर बच्चा आता है और उससे खिलौना छीन लेता है। इस पर लड़का रोने लगता है। अगली बार, लड़का खुद ही दूसरे छोटे बच्चे से खिलौना छीन लेता है। पूरे खेल में खिलौनों के लिए बच्चों के बीच झगड़े होते रहते हैं। इस दौरान पिता बेटे के ठीक पीछे खड़ा रहता है। लेकिन उस लड़के के लिए जो खिलौनों में खोया हुआ है, उसके पिता बहुत निकट होकर भी बहुत दूर हैं।  यह कहानी हमें यह समझने में मदद करती है जब श्रीकृष्ण कहते हैं,"भगवान सभी के भीतर एवं बाहर स्थित हैं चाहे वे चर हों या अचर। वे सूक्ष्म हैं और इसलिए वे हमारी समझ से परे हैं। वे अत्यंत दूर हैं लेकिन वे सबके निकट भी हैं" (13.16)। उपरोक्त कहानी में पिता की तरह, वह (श्रीकृष्ण) हमारे जीवन की पूरी यात्रा में ठीक हमारे पीछे हैं और हमें बस पीछे मुड़कर देखना है। इसके लिए जब हम दुनियावी आकर्षणों में खो जाते हैं, प्रभु विभिन्न अनुभव भेजकर हमारी सहायता करते हैं। हमें याद दिलाने के लिए वह कठिन परिस्थितियां देते हैं जैसे पिता लड़के पर चिल्लाते हैं।   जब श्रीकृष्ण कहते हैं कि वह समझ के बाहर हैं, तो इसका मतलब यह है कि हम हमारी इंद्रियों की सीमाओं के कारण उनको समझ नहीं पाते हैं। वे अनुभवों के माध्यम से प्राप्त हो सकते हैं लेकिन व्याख्या के माध्यम से नहीं। किसी ऐसे व्यक्ति के लिए जिसने कभी नमक या चीनी नहीं चखा,कोई भी व्याख्या उनके स्वाद को समझने में मदद नहीं करेगी। उनके स्वाद को समझने का एकमात्र तरीका उनको चखना है यानी जागरूकता के साथ उनका अनुभव करना है।

26.9.2025 - 3 min
Loistava design ja vihdoin on helppo löytää podcasteja, joista oikeasti tykkää
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