
Gita Acharan
Podcast door Siva Prasad
Tijdelijke aanbieding
3 maanden voor € 1,00
Daarna € 9,99 / maandElk moment opzegbaar.

Meer dan 1 miljoen luisteraars
Je zult van Podimo houden en je bent niet de enige
Rated 4.7 in the App Store
Over Gita Acharan
Bhagavad Gita is a conversation between Lord Krishna and Warrior Arjun. The Gita is Lord's guidance to humanity to be joyful and attain moksha (salvation) which is the ultimate freedom from all the polarities of the physical world. He shows many paths which can be adopted based on one's nature and conditioning. This podcast is an attempt to interpret the Gita using the context of present times. Siva Prasad is an Indian Administrative Service (IAS) officer. This podcast is the result of understanding the Gita by observing self and lives of people for more than 25 years, being in public life.
Alle afleveringen
624 afleveringen
भगवद गीता के ग्यारहवें अध्याय के अंत में (11.55), श्रीकृष्ण कहते हैं कि उन तक केवल भक्ति के माध्यम से ही पहुंचा जा सकता है। इस प्रकार, भगवद गीता के श्रद्धेय बारहवें अध्याय को भक्ति योग कहा जाता है। श्रीकृष्ण के विश्वरूप को देखकर अर्जुन भयभीत हो गए और उन्होंने पूछा, "आपके साकार रूप पर दृढ़तापूर्वक निरन्तर समर्पित होने वालों को या आपके अव्यक्त निराकार रूप की आराधना करने वालों में से आप किसे योग में उत्तम मानते हैं" (12.1)? संयोगवश, सभी संस्कृतियों की जड़ें इसी प्रश्न में हैं। गीता में तीन व्यापक मार्ग दिये गये हैं। मन उन्मुख लोगों के लिए कर्म, बुद्धि उन्मुख के लिए सांख्य (जागरूकता) और हृदय उन्मुख के लिए भक्ति। ये अलग-अलग रास्ते नहीं हैं और उनके बीच बहुत सी आदान-प्रदान होती है और यही इस अध्याय में दिखता है। श्रीकृष्ण ने पहले एक पदानुक्रम दिया और कहा कि मन इंद्रियों से श्रेष्ठ है; बुद्धि मन से श्रेष्ठ है और बुद्धि से भी श्रेष्ठ आत्मा है (3.42)। श्रीकृष्ण ने यह भी कहा कि उन्हें केवल समर्पण के द्वारा न कि वेदों, अनुष्ठानों या दान के जरिये प्राप्त किया जा सकता है (11.53)। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि कोई व्यक्ति या तो कर्म-सांख्य का मार्ग जो लंबा है या समर्पण का एक छोटा मार्ग जो बहुत दुर्लभ है, के माध्यम से भक्ति तक पहुंचता है। भक्ति परमात्मा तक पहुंचने की अंतिम सीढ़ी है। भक्ति हमारी इच्छाओं को पूरा करने या कठिनाइयों को दूर करने के लिए हमारे द्वारा किए जाने वाले प्रार्थनाओं, अनुष्ठानों या जप से परे है। यह एक साथ निमित्तमात्र और श्रद्धावान दोनों होना है। जब अनुकूल और प्रतिकूल घटनाएं हमारे माध्यम से घटित होती हैं, यह एहसास करना है कि हम ईश्वर के हाथों के केवल एक उपकरण हैं अर्थात निमित्तमात्र हैं। हमारे जीवन में हमें जो कुछ भी मिलता है या जो कुछ भी होता है उसे परमात्मा के आशीर्वाद के रूप में स्वीकार करना ही श्रद्धा है, चाहे वह हमें पसंद हो या नहीं। यह बिना शर्त प्यार है जिसे श्रीकृष्ण ने स्वयं को दूसरों में और दूसरों को स्वयं में देखने और उन्हें हर जगह देखने की अवस्था के रूप में वर्णित किया है (6.29)।

मानसिक अस्पताल में काम करने वाला एक डॉक्टर अपने एक दोस्त को अस्पताल दिखाने ले गया। उसके दोस्त ने एक कमरे में एक आदमी को एक महिला की तस्वीर के साथ देखा और डॉक्टर ने बताया कि वह आदमी उस महिला से प्यार करता था और जब वह उससे शादी नहीं कर सका तो मानसिक रूप से अस्थिर हो गया। अगले कमरे में, उसी महिला की तस्वीर के साथ एक और आदमी था और डॉक्टर ने बताया कि उससे शादी करने के बाद वह मानसिक रूप से अस्थिर हो गया था। यह विडम्बना से भरी हुई कहानी बताती है कि पूर्ण और अपूर्ण इच्छाओं के एक जैसे विनाशकारी परिणाम कैसे हो सकते हैं। अर्जुन के साथ भी यही हुआ। भगवद गीता के ग्यारहवें अध्याय 'विश्वरूप दर्शन योग' के प्रारंभ में, वह श्रीकृष्ण का विश्वरूप देखना चाहते थे। लेकिन जब उन्होंने श्रीकृष्ण के विश्वरूप को देखा तो वह भयभीत हो गए। चिंतित अर्जुन अब श्रीकृष्ण को उनके मानव रूप में देखने की इच्छा प्रकट करते हैं। इसी तरह, जीवन में हमारा लक्ष्य समय के साथ बदलता रहता है। श्रीकृष्ण अपना विश्वरूप दिखाते हैं जिसमें अर्जुन देखते हैं कि उसके सभी शत्रु मृत्यु के मुंह में प्रवेश कर रहे हैं। श्रीकृष्ण उन्हें बताते हैं कि अर्जुन सिर्फ एक निमित्त मात्र (उनके हाथ में एक उपकरण) हैं और उनको बिना तनाव के लड़ने के लिए कहते हैं। अंत में, श्रीकृष्ण कहते हैं कि इस रूप को वेद,दान या अनुष्ठान के माध्यम से नहीं देखा जा सकता है, बल्कि केवल भक्ति के माध्यम से ही कोई व्यक्ति उनतक पहुँच सकता है। अज्ञानी स्तर पर, व्यक्ति भौतिक संपत्ति के संचय का सहारा लेता है। जब जागरूकता की किरण आती है, तो व्यक्ति पुण्य जैसा कुछ उच्च प्राप्त करने के लिए दान करना शुरू कर देता है, जो आमतौर पर मृत्यु के बाद स्वर्ग जाने के लिए होता है। जब श्रीकृष्ण कहते हैं कि दान मदद नहीं कर सकता, तो वे दान, वेद, अनुष्ठान से आगे बढ़ने और भक्ति के माध्यम से उन तक पहुंचने की सलाह दे रहे हैं। यह अगले स्तर तक पहुंचने के लिए एक सीढ़ी की तरह है। दान, वेद और कर्मकाण्ड सीढ़ी के चरण हैं, पर मंजिल नहीं। उन तक पहुंचने के लिए अंतिम चरण के रूप में भक्ति से गुजरना पड़ता है।

श्रीकृष्ण कहते हैं, "मेरे इस विराट रूप को तुमसे पहले किसी ने नहीं देखा है (11.47)। मेरा यह विराट रूप न तो वेदों के अध्ययन से, न यज्ञों से, न दान से,न कर्मकाण्डों से और न ही कठोर तपस्या से देखा जा सकता है (11.48)। भयमुक्त और प्रसन्नचित्त होकर मेरे इस पुरुषोत्तम रूप को फिर से देखो" (11.49)। श्रीकृष्ण अपने मानव स्वरूप में आ जाते हैं (11.50) और अर्जुन का चित्त स्थिर हो जाता है (11.51)। श्रीकृष्ण कहते हैं, "मेरे इस रूप को देख पाना अति दुर्लभ है। स्वर्ग के देवता भी इस रूप के दर्शन की आकांक्षा करते हैं (11.52)। मेरे इस रूप को न तो वेदों के अध्ययन, न ही तपस्या, दान और यज्ञों जैसे साधनों द्वारा देखा जा सकता है" (11.53)। हमारी सामान्य धारणा यह है कि दान से हमें पुण्य मिलता है। लेकिन श्रीकृष्ण कहते हैं कि दान हमें उनके विश्वरूप को देखने में मदद नहीं कर सकता। जब दान अहंकार से प्रेरित होता है, तो यह पुण्य, नाम, दिल की तसल्ली आदि पाने के लिए अपना कुछ देने का व्यवसाय बन जाता है। यह व्यापार हमें परमात्मा तक नहीं ले जा सकता क्योंकि उन्हें खरीदा नहीं जा सकता। तुरंत, श्रीकृष्ण एक सकारात्मक मार्ग सुझाते हुए कहते हैं, "लेकिन केवल एकनिष्ठ भक्ति से मुझे इस तरह देखा जा सकता है (11.54) और जो मेरे प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं, मुझे सर्वोच्च मानकर वह मेरे प्रति समर्पित हैं, आसक्ति से मुक्त हैं, किसी भी प्राणी से द्वेष नहीं रखते हैं, ऐसे भक्त निश्चित रूप से मुझे प्राप्त करते हैं" (11.55)। आसक्ति से मुक्त होने का अर्थ विरक्ति नहीं है। यह न तो घृणा है और न ही लालसा। पहले भी, श्रीकृष्ण ने हमें घृणा छोड़ने की सलाह दी थी न कि कर्म। कुंजी किसी भी प्राणी के प्रति शत्रुता छोड़ना है। घृणा, अहंकार की तरह है, और दोनों के कई आकार, चेहरे, रूप और अभिव्यक्तियाँ होती हैं जिसके कारण इन्हें पहचानना मुश्किल हो जाता है। घृणा एक जहर की तरह है, जिसे हम ढ़ोते हैं, जो अंततः हमें चोट और क्षति पहुंचाएगा। दूसरे शब्दों में, दुःख की स्थिति से आनंद की ओर बढ़ने के लिए घृणा का त्याग करना आवश्यक है।

अर्जुन ने भय से कांपते हुए अपने दोनों हाथों को जोड़कर श्रीकृष्ण को नमस्कार किया और इस प्रकार कहा (11.35), "संसार आपकी स्तुति में प्रसन्न और आनंदित है, राक्षस भयभीत होकर भाग रहे हैं और सिद्ध पुरुष आपको नमन कर रहे हैं (11.36) चूँकि आप ब्रह्मा की उत्पत्ति के कारण हैं, देवों के देव हैं, ब्रह्मांड के निवास हैं। आप अविनाशी हैं, व्यक्त और अव्यक्त से परे हैं, आप सर्वोच्च हैं (11.37)। आप ही सर्वज्ञाता और जो कुछ भी जानने योग्य है वह सब आप ही हो। आप ही परम धाम हो। हे अनंत रूपों के स्वामी! केवल आप ही समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त हो" (11.38)। अर्जुन कहते हैं कि आप ही वायु, यम (मृत्यु के देवता), अग्नि और वरुण (समुद्र देवता) हैं (11.39), और बार-बार नमस्कार करते हैं (11.40)। वह आगे कहते हैं, "आप समस्त चर-अचर के स्वामी और समस्त ब्रह्माण्डों के जनक हैं। तीनों लोकों में आपके समतुल्य कोई नहीं है, और न आपसे बढ़कर कोई है" (11.43)। अर्जुन झुककर, उनको साष्टांग प्रणाम करते हुए उनकी कृपा चाहते हैं,जैसे एक पुत्र अपने पिता से, एक प्रेमिका अपने प्रेमी से और एक मित्र दूसरे मित्र से कृपा चाहते हैं (11.44)। जो पहले नहीं देखा था (विश्वरूप) उसे देखकर अर्जुन प्रसन्न होता है और साथ ही, उसका मन भय से भर जाता है और दया चाहता है (11.45)। वह श्रीकृष्ण को उनके मानव रूप में देखने की प्रार्थना करता है (11.46)। जबकि अर्जुन ने तीन रिश्तों का उल्लेख किया है; पिता-पुत्र, मित्र-मित्र और प्रेमी-प्रेमिका; किसी भी स्वस्थ रिश्ते के लिए शालीनता की आवश्यकता होती है और सभी संस्कृतियां यही कहती हैं। लंबे समय तक चलने के लिए रिश्तों में शालीनता एक आवश्यक तत्व है और समकालीन साहित्य इस दिशा में हमारा मार्गदर्शन करता है, विशेष रूप से विवाह और परिवार के संदर्भ में। शालीनता रिश्तों में दूसरों को माफ करने की क्षमता है, यह जानकर कि हम भी वैसी गलतियाँ कर सकते हैं और दूसरों के प्रति करुणा रखने की बात है। यह करुणा का भाव तब आता है जब समत्व को गहराई से आत्मसात किया जाता है, जब हम प्रशंसा और आलोचना के द्वंद्व को पार कर जाते हैं, जब हम स्वयं को दूसरों में और दूसरों को स्वयं में देखते हैं जो हमें भिन्नताओं को अपनाने में मदद करता है।

विभिन्न संस्कृतियाँ परमात्मा का वर्णन अलग-अलग तरीके से करती हैं। हमारी आस्था के आधार पर परमात्मा का स्वरूप बदलता रहता है। अगर परमात्मा हमारे सामने किसी अलग आकार या रूप में प्रकट होते हैं तो उन्हें पहचान पाना कठिन होगा। इसी तरह अर्जुन शुरू से श्रीकृष्ण के साथ मित्र की तरह व्यवहार कर रहे थे। जब तक अर्जुन ने विश्वरूप को नहीं देखा तब तक वह नहीं पहचान सके कि श्रीकृष्ण परमात्मा हैं। वह क्षमा मांगते हुए कहते हैं कि "आपको अपना मित्र मानते हुए मैंने धृष्टतापूर्वक आपको हे कृष्ण, हे यादव, हे प्रिय मित्र कहकर संबोधित किया क्योंकि मुझे आपकी महिमा का ज्ञान नहीं था। उपेक्षित भाव से और प्रेमवश होकर यदि उपहास करते हुए मैंने कई बार खेलते हुए,विश्राम करते हुए, बैठते हुए, खाते हुए, अकेले में या अन्य लोगों के समक्ष आपका कभी अनादर किया हो तो उन सब अपराधों के लिए मैं आपसे क्षमा याचना करता हूँ" (11.41-11.42)। अर्जुन की तरह हमारे साथ भी ऐसा ही होगा। जब हम समर्पण की उस शाश्वत अवस्था तक पहुँचते हैं, तो हमें एहसास होता है कि हर कोई उसी परमात्मा का हिस्सा है। हरेक व्यक्ति, पशु या वृक्ष परमात्मा बन जायेंगे,चाहे वे इसके बारे में जानते हों अथवा नहीं। उनके साथ हमारा पिछला व्यवहार भद्दा लगेगा और अर्जुन की तरह माफी मांगने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। कई संस्कृतियां स्वतंत्रता की इस शाश्वत स्थिति को प्राप्त करने के लिए क्षमा मांगने, कृतज्ञता व्यक्त करने और साष्टांग प्रणाम करने का उपदेश देती हैं और अभ्यास कराती हैं। श्रीमद्भागवत के ग्यारहवें अध्याय में श्रीकृष्ण और उनके बचपन के मित्र उद्धव के बीच एक लंबी वार्तालाप है। बातचीत के अंत में, उद्धव मोक्ष प्राप्त करने के लिए एक आसान मार्ग बताने का अनुरोध करते हैं। श्रीकृष्ण उत्तर देते हैं,‘एक चोर, गधे या शत्रु को उसी तरह साष्टांग प्रणाम करो जैसे तुम मुझे साष्टांग प्रणाम करते हो’। यह मार्ग समझने में बहुत आसान है लेकिन इसका आचरण करना बहुत कठिन है। यह वैसा ही है जब श्रीकृष्ण ने कहा था 'सभी प्राणियों को स्वयं में महसूस करो; सभी प्राणियों में स्वयं को देखो और हर जगह उन्ही (परमात्मा) को देखो' (6.29) जिसे घृणा को त्यागकर आसानी से प्राप्त किया जा सकता है (5.3)।

Rated 4.7 in the App Store
Tijdelijke aanbieding
3 maanden voor € 1,00
Daarna € 9,99 / maandElk moment opzegbaar.
Exclusieve podcasts
Advertentievrij
Gratis podcasts
Luisterboeken
20 uur / maand