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Les mer Gita Acharan
Bhagavad Gita is a conversation between Lord Krishna and Warrior Arjun. The Gita is Lord's guidance to humanity to be joyful and attain moksha (salvation) which is the ultimate freedom from all the polarities of the physical world. He shows many paths which can be adopted based on one's nature and conditioning. This podcast is an attempt to interpret the Gita using the context of present times. Siva Prasad is an Indian Administrative Service (IAS) officer. This podcast is the result of understanding the Gita by observing self and lives of people for more than 25 years, being in public life.
200. आत्मा शरीर को प्रकाश देती है
श्रीकृष्ण कहते हैं, "जिस प्रकार से एक सूर्य समस्त ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है उसी प्रकार से आत्मा चेतना शक्ति के साथ पूरे शरीर को प्रकाशित करती है" (13.34)। शरीर में जीवन लाने के लिए आत्मा की आवश्यकता होती है। यह बिजली की तरह है जो उपकरणों में जीवन लाती है। गीता के तेरहवें अध्याय का शीर्षक 'क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग' है जहां श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि भौतिक शरीर को क्षेत्र कहा जाता है जिसके गुणों में अहंकार(मैं कर्ता हूँ), बुद्धि, मन, दस इंद्रियां, इंद्रियों के पांच विषय, इच्छा, घृणा, सुख, दुःख, स्थूल देह का पिंड, चेतना और धृति शामिल हैं। क्षेत्र के ज्ञाता को क्षेत्रज्ञ कहा जाता है। श्रीकृष्ण ने ज्ञान के लगभग बीस पहलुओं का उल्लेख किया है और वे विनम्रता को सबसे आगे रखते हैं जो दर्शाता है कि यह कमजोरी नहीं बल्कि एक सद्गुण है। ज्ञान के अन्य पहलुओं में क्षमा, आत्म-संयम, इंद्रिय वस्तुओं के प्रति वैराग्य, अहंकार का अभाव, अनासक्ति और प्रिय और अप्रिय परिस्थितियों के प्रति शाश्वत समभाव शामिल हैं। श्रीकृष्ण इस ज्ञान के उद्देश्य के बारे में आगे बताते हैं। एक बार जब वह 'उस' को जान लेता है जो जानने योग्य है तो वह आनंद प्राप्त करता है। यह न तो सत् है और न ही असत् है और सभी में व्याप्त होकर संसार में निवास करता है। वह ध्यान, जागरूकता,कर्म या संतों को सुनने के माध्यम से 'उस' को प्राप्त करने का मार्ग बताते हैं। श्रीकृष्ण प्रकृति के बारे में बात करते हैं जो कारण और प्रभाव के लिए जिम्मेदार है। पुरुष अपनी व्याख्या के अनुसार सुख और दुःख के अनुभव के लिए जिम्मेदार है। दोनों अनादि हैं। श्रीकृष्ण भगवद गीता के तेरहवें अध्याय का समापन करते हुए कहते हैं, "जो लोग ज्ञान चक्षुओं से क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के बीच के अन्तर और प्रकृति की शक्ति के बन्धनों से मुक्त होने की विधि जान लेते हैं, वे परम लक्ष्य प्राप्त कर लेते हैं" (13.35)। यह भगवान श्रीकृष्ण का आश्वासन है कि एक बार जब हम क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ की गहरी समझ प्राप्त कर लेते हैं तो हम शाश्वत अवस्था में पहुँच जाते हैं।
199. एक जड़ एक मूल
श्रीकृष्ण कहते हैं, "जब वे विविध प्रकार के प्राणियों को एक ही परम शक्ति परमात्मा में स्थित देखते हैं और उन सबको उसी से जन्मा समझते हैं तब वे ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त करते हैं" (13.31)। समसामयिक वैज्ञानिक समझ के अनुसार ब्रह्माण्ड लगभग 14 अरब वर्ष पूर्व एक बिन्दु से प्रारम्भ हुआ और आज भी विस्तारित हो रहा है। विस्तार की इस प्रक्रिया से बड़ी संख्या में तारे और ग्रह बने। इसने विभिन्न प्रकार के प्राणियों को भी जन्म दिया। यह श्लोक अपने समय की भाषा का प्रयोग करते हुए यही संदेश देता है। हालांकि यह ज्ञान आसानी से प्राप्त किया जा सकता है, यह श्लोक वर्तमान क्षण में 'एक मूल' को देखने की क्षमता को इंगित करता है। हम विभिन्न जीवन रूपों और विभिन्न स्थितियों का सामना करते हैं जिसके परिणामस्वरूप हमारे भीतर कई भावनाएं पैदा होती हैं। जब हम 'एक मूल' का अनुभव करते हैं, तो हम 'मेरा और तुम्हारा' के विभाजन से मुक्त हो जाते हैं। इस श्लोक को मोक्ष की परिभाषा के रूप में भी लिया जा सकता है जो यहां और अभी परम स्वतंत्रता है। श्रीकृष्ण आगे कहते हैं, "परमात्मा अविनाशी है और इसका कोई आदि नहीं है और प्रकृति के गुणों से रहित है। यद्यपि यह शरीर में स्थित है किन्तु यह न तो कर्म करता है और न ही प्रकृति की शक्ति से दूषित होता है (13.32)। आकाश सबकुछ अपने में धारण कर लेता है। जिसे यह धारण किए रहता है उसमें लिप्त नहीं होता। इसी प्रकार से आत्मा शरीर में व्याप्त रहती है फिर भी आत्मा शरीर के धर्म से प्रभावित नहीं होती" (13.33)। ऐसी ही जटिलता को समझाने के लिए श्रीकृष्ण ने कमल के पत्ते का उदाहरण दिया जो पानी के संपर्क में रहने के बावजूद भीगता नहीं है। इसी प्रकार आत्मा भी शरीर के गुणों से प्रभावित नहीं होती। आकाश हमारे चारों ओर है और यह सब कुछ धारण करता है, लेकिन दूषित नहीं होता क्योंकि यह न तो किसी चीज से जुड़ता है और न ही किसी चीज से अपनी पहचान बनाता है। जब भी हम आकाश को देखते हैं तो इस पहलू को याद रखना आवश्यक है और कुछ ध्यान की तकनीकें इस पहलू का उपयोग करती हैं।
119. చైతన్యం, కరుణల పొందిక
ఈ భూలోకంలో జ్ఞానోదయం పొందిన ప్రతి వ్యక్తి చేసిన బోధనల సారాంశమూ సమానత్వమే. పదములు, భాషలు మరియుపద్ధతులలో తేడా ఉండవచ్చు కానీ సమత్వము సాధించుటమే ప్రతి ఒక్కరి సందేశం యొక్క సారాంశము. దీనికి భిన్నంగా సాగిన ఏ ప్రభోధనమైనా, ఆచరణ అయినా మూఢత్వంతో కూడుకున్నది తప్ప మరోటి కాదు. మనస్సు విషయములో ఒక వైపు ఇంద్రియాలు మరియు మరొక వైపు బుద్ధి మధ్య సమతుల్యత సాధించడం. ఒకరుఇంద్రియాల వైపు మొగ్గితే కోరికల్లో మునిగిపోతాడు. మేధావి అయిన వ్యక్తి తగిన చైతన్యం కలిగి ఉంటాడు కానీ అవసరమైనంత కరుణ లేకపోతే ఇతరులను చిన్న చూపు చూసే ప్రమాదం లేకపోలేదు. ఎవరైతే ఇతరుల సుఖ దుఃఖాలను తమవిగా చూడగలుగుతాడో అతడే నిజమైన యోగి అని శ్రీకృష్ణుడు చెప్తారు (6.32). ఇది చైతన్యం, కరుణలు సమపాళ్లల్లో ఉన్న జీవితం. శ్రీకృష్ణుడు బంగారం, రాతి వంటి వాటిని సమానంగా పరిగణించమని చెప్పారు. ఒక ఆవు, ఒక ఏనుగు మరియు కుక్కను ఒకేలా చూడమని చెప్పారు. తర్వాత మిత్రులు, శత్రువులతోసహా అందరినీ సమభావనతో చూడమని చెప్పారు. ప్రతి వ్యక్తితో వ్యవహరించడానికి మూడు వేర్వేరు స్థాయిలు ఉన్నాయి అని గమనిస్తే ఈ బోధనను అర్ధము చేసుకోవడం సులభం. మొదటిస్థాయి దేశం యొక్క చట్టం ముందు సమానత్వం లాంటిది. ఇక్కడ ఇద్దరు వ్యక్తులకు సమానంగా పరిగణించబడే హక్కు ఉంటుంది. మనకు అత్యంత ఆప్తులైన వారు ఆప్తులు కాని వారిగుణగణాలను సమానంగా స్వీకరించగలగటం అవగాహన యొక్క రెండవ స్థాయి. ఇది తల్లిదండ్రులను, అత్తమామలను సమానంగా చూసుకొవడం లాంటిది. ఇతరుల సుఖాలను మన సుఖాలుగాభావించడం, వారి కష్టాలను మన కష్టాలుగా స్పందించడం; మనల్ని ఇతరులతో సమానంగానూ, ఇతరులను మనతో సమానంగానూ చూడగలగటం అనేది సమత్వంలో అత్యున్నత స్థాయి. ఇది చరాచర జీవులను సమానంగా చూడగలిగేసామర్ధ్యం ఉన్నప్పుడు కలిగే కరుణ హృదయ తత్వమే. దీన్నే శ్రీకృష్ణుడు అలౌకిక ఆనందం అని అంటారు. మనస్సు ఈ ప్రశాంత స్థితికి చేరుకున్నప్పుడు రాగద్వేషాలు అదుపులో ఉంటాయి (6.27). ఈ ప్రశాంత చిత్తాన్ని సాధించడానికి ప్రతి నిత్యమూ కృతనిశ్చయంతో ప్రయత్నించాలని శ్రీకృష్ణుడు ఉపదేశిస్తున్నారు (6.23). స్థిరత్వం లేని మనస్సు చంచలత్వంతోవ్యవహరించినా దాన్ని అదుపులోకి తీసుకురావల్సిన అవసరం ఉంది (6.26). ఈ రకమైన ఆధ్యాత్మిక అభ్యాసాన్ని క్రమం తప్పకుండా పాటిస్తూ వెళ్తే అంతులేని అలౌకికానందాన్నిపొందవచ్చని శ్రీకృష్ణుడు చెప్తున్నారు (6.28).
198. हवा में महल
श्रीकृष्ण कहते हैं, "जितने भी चर और अचर सृष्टि तुम्हें दिखाई दे रही हैं वे सब क्षेत्र और क्षेत्र के ज्ञाता का संयोग मात्र हैं (13.27)। जो परमात्मा को सभी जीवों में आत्मा के रूप में देखता है और जो इस नश्वर शरीर में दोनों को अविनाशी समझता है केवल वही वास्तव में देखता है" (13.28)। इसी तरह का वर्णन श्रीकृष्ण ने पहले भी किया था जहां उन्होंने 'सत्' को शाश्वत और 'असत्' को वह बताया जो अतीत में नहीं था और जो भविष्य में भी नहीं होगा (2.16); और हमें उनमें अंतर करने की सलाह दी। हम अपने चारों ओर जो कुछ भी देखते हैं वह नाशवान है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि इस नाशवान के पीछे अविनाशी है। नाशवानता की गहराई में जाकर अविनाशी की खोज करने के बजाय, हम अपना जीवन नाशवान के आधार पर बनाते हैं। यह हवा में महल बनाने जैसा है। नाशवान में स्थायित्व या निश्चितता लाने के हमारे प्रयासों का अंत दुःख में होना तय है। श्रीकृष्ण ने ऐसी स्थिति को अपने द्वारा अपना विनाश के रूप में वर्णित किया और परम गंतव्य तक पहुंचने के लिए भगवान की सर्वव्यापकता का एहसास करने का परामर्श दिया (13.29)। यह बिना आसक्ति या विरक्ति के नाशवान (परिवर्तन) को साक्षी बनकर देखने की आदत विकसित करने के बारे में है; बिना किसी प्रतिरोध के परिवर्तन के साथ सामंजस्य बनाकर रहने के बारे में है। श्रीकृष्ण आगे कहते हैं, "जो यह समझ लेते हैं कि शरीर के समस्त कार्य प्रकृति की शक्ति के द्वारा सम्पन्न होते हैं जबकि देहधारी आत्मा वास्तव में कुछ नहीं करती, केवल वही वास्तव में देखते हैं" (13.30)। नाशवान संसार में, कर्ता के लिए कोई स्थान नहीं है क्योंकि सब कुछ एक बुलबुले की तरह है जो अपने आप उत्पन्न होता है और बाद में नष्ट हो जाता है। गीता में कई बार यह समझाया गया है कि हम कर्म के कर्ता नहीं हैं। प्रकृति से उत्पन्न तीन गुणों का संयोजन और उनकी अंतःक्रिया हमारे चारों ओर दिखाई देने वाले कर्म के लिए जिम्मेदार है। यह बात हमारे जीवन के अनुभवों के माध्यम से जितनी गहराई से हमारे भीतर आत्मसात होती जाती है, हम उतने ही शांतमय होते जाते हैं।
197. व्यक्तित्व पर मार्ग आधारित होता है
द्रोणाचार्य धनुर्विद्या में निपुण थे जो अपने शिष्य अर्जुन को धनुर्विद्या सिखा रहे थे। एक और छात्र एकलव्य भी द्रोणाचार्य से सीखना चाहता था, जिन्होंने उसे शिक्षा देने से इनकार कर दिया। एकलव्य ने वापस लौटकर द्रोणाचार्य की एक मूर्ति स्थापित की और मूर्ति को वास्तविक गुरु मानकर धनुर्विद्या सीखी। कहा जाता है कि वह अर्जुन से भी श्रेष्ठ धनुर्धर निकला। यह कहानी गुरु-शिष्य के रिश्ते और ज्ञान प्राप्ति के क्षेत्र में कई पहलुओं को दर्शाती है। यह कहानी हमें यह समझने में मदद करती है जब श्रीकृष्ण कहते हैं,"कुछ लोग ध्यान द्वारा अपने हृदय में बैठे परमात्मा को देखते हैं और कुछ लोग ज्ञानयोग द्वारा, जबकि कुछ अन्य लोग कर्मयोग द्वारा देखने का प्रयत्न करते हैं (13.25)। कुछ अन्य लोग ऐसे भी होते हैं जो आध्यात्मिक मार्ग से अनभिज्ञ होते हैं लेकिन वे अन्य संत पुरुषों से श्रवण कर भगवान की आराधना करने लगते हैं। वे भी धीरे-धीरे जन्म और मृत्यु के सागर को पार कर लेते हैं" (13.26)। एकलव्य की तरह हम भी परमात्मा को अपने भीतर प्रत्यक्ष रूप से अनुभव करते हैं या अर्जुन की तरह संतों की वाणी सुनकर अनुभव कर सकते हैं। आध्यात्मिक यात्रा में कोई एक मार्ग नहीं है। किसी के व्यक्तित्व के आधार पर, यह व्यक्ति-दर-व्यक्ति अलग होता है। हृदय उन्मुख व्यक्ति के लिए, यह भक्ति या समर्पण के माध्यम से होता है। बुद्धि उन्मुख व्यक्ति के लिए यह जागरूकता (सांख्य) का मार्ग है। मन उन्मुख व्यक्ति के लिए यह कर्म का मार्ग है। हालांकि इन मार्गों के दृष्टिकोण, अनुभव और भाषा काफी भिन्न होती हैं, लेकिन ये सभी परमात्मा तक ले जाते हैं। भगवद गीता में श्रीकृष्ण इन सभी मार्गों के बारे में बताते हैं और हमारे व्यक्तित्व के आधार पर मार्ग निर्धारित होता है। 'संतों की वाणी सुनने के माध्यम से बोध' का मार्ग कुछ प्रश्न पैदा करता है कि संत या गुरु कौन हैं और उनकी पहचान कैसे की जाए। इससे पहले श्रीकृष्ण ने हमें साष्टांग प्रणाम (विनम्रता), प्रश्न पूछना (खुद के हर पहलू पर) और सेवा विकसित करने की सलाह दी थी (3.34)। एकलव्य ने इन गुणों को विकसित किया और सीखना अपने आप ही हुआ क्योंकि सृष्टि ही गुरु बन गया।
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